मैं भाग गया हूं

देर रात जब झिंगुर अपना हल्‍ला मचा-मचाकर थक गए होते, और सब तरफ़ सन्‍नाटा छा जाने के बाद जब जागी आंखों के सपने में कहीं दूर से उठी चली आती मेले की आवाज़ें आत्‍मा में गड्ढे गोड़ना शुरु करतीं, मैं चिंहुककर और जल्‍दी-जल्‍दी अम्‍मां के पैर दबाने लगता. अम्‍मां बिना पैर सिकोड़े और खींचें साड़ी से मुंह ढांपे-ढांपे शिकायत करती, ‘पैर दबाने में तेरा मन नहीं है, जा तू मेला देखे जा!’
घबराहट में गुस्‍सा होने का अभिनय करता, ‘दिमाग खराब है तोहरा? ई मेला जाये का बखत है कवनो, मालूम है घड़ी में केतना टाइम हो रहा है? और है कहां मेला?’
अम्‍मां नज़दीक खींचकर मेरे बाल में हाथ फिराती बोलतीं, ‘तोहरे सपने में, तोको पैदा की हैं तो तोको समझती नहीं हैं?’
रात की ख़ामोशी सपने के मेले के शोर में मेरे लिए अपनी बेचैनियों को वश में करना असंभव हो जाता तो मैं अम्‍मां के दुलार में खुद को छिपाने की कोशिश करता, मगर फिर अम्‍मां के कपड़ों से मेरे अजाने सपनों की महक छूटती, फिर मैं और-और घबराने लगता, अचकचाहट में अम्‍मां की हथेलियों से सर छुड़ाकर गुस्‍से में चीख़ता, ‘अम्‍मां, एक दिन मैं भाग जाऊंगा, सबसे दूर! तुमसे भी, हां?’
अम्‍मां मेरे कहे से नाराज़ नहीं होती. अंधेरे में साड़ी के किनारा से चेहरा पोंछती कहती, ‘जानती हूं. तुझे हमसे मोह नहीं है, सपने से है. फिर हमरे पास तोरा को देने को क्‍या है, कौनो सपनो तक नहीं है!’
‘वो बात नहीं है, अम्‍मां..’ लेकिन फिर वो क्‍या बात होती सो मेरी समझ में न आता. बिछौने से कूदकर दौड़ता दरवाज़े से बाहर मैं आंगन में आता और चांदनी में नहाये आसमान के नीचे खड़ा हकबक अचरज़ करता कि वह क्‍या है जो अकेले में आंखें मूंदते ही मेरा चैन हरने चला आता है? कैसे शोर हैं जिन्‍हें मैं पहचानता भी नहीं और जो मुझे बुलाते, अपनी ओर खींचे लिये जाते हैं? क्‍योंकि सच्‍चाई है हल्‍ला मैं जितना भी मचाऊं, अम्‍मां से दूर जाने की मैं सोच भी नहीं सकता. न चंद्रमा चाचा के ईनारे से, न उससे लगे इमली के पेड़ और बृजनारायन के आम के बगानी से, जा सकता हूं दूर? नहीं जा सकता.
स्‍कूल में झा सर पता नहीं पुस्‍तक के किस हिस्‍से से कौन पाठ पढ़ा रहे हैं, मैं सुन नहीं रहा, सच कहूं तो मुझे झा सर से पिटने का डर भी नहीं, क्‍योंकि कापी में मैं अपने सपने का नक़्शा बना रहा हूं, जिसमें दूर-दूर तक फैली, उठती समुंदर की लहरें हैं, एक बड़ी डोलती नाव का मीठा, गुमसुम अंधेरा है, और मैं कप्‍तान साहब की नज़र बचाये औंधा पड़ा माथे पर हाथ से धूप छेंके पता नहीं किस मुलुक का विदेशी गाना है, गुनगुना रहा हूं, कि तभी पीछे कहीं अम्‍मां का उलाहना गूंजता है, ‘अरे, गये कहां, उजबक?’ मैं अपने में मुस्‍कराता हौले फुसफुसाता हूं कि अम्‍मां के कानों तक मेरा जवाब न पहुंचे, ‘अम्‍मां, मैं भाग गया हूं!’

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